Wednesday, October 22, 2008

मुक्तक 9

वो इक धान की पौध थी नन्ही मुन्नी
जिसे बेटी कहकर पुकारा था मैंने
उसे और ही खेत में रोप आई
जिसे अंकुरित कर दुलारा था मैंने

विदाई भी राहत-सी लगने लगी है
समय की ज़रूरत-सी लगने लगी है
युवा होते-होते यह बाँहों की बच्ची
किसी की अमानत-सी लगने लगी है

ख़ज़ाने खनकते हुए क़हक़हों के
लिफ़ाफ़े पुरानी लिखी चिट्ठियों के
ये शीशे के महलों मेंसोई हुई हैं
कभी स्वप्न पूछो न तुम लड़कियों के

वो सुख घर का देखे, न सामान देखे
जो है मन के अंदर वो अरमान देखे
कभी जिसने जीवन में झाँका नहीं है
परखकर वो नारी का बलिदान देखे

डॉ। मीना अग्रवाल

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