Sunday, November 23, 2008

मुक्तक 29

अपनी पीड़ा कहें, यह चलन भी नहीं
तुमसे मिलने का कोई जतन भी नहीं
कैसी अलसाई बैठी हूँ अँगनाई में,
तुम नहीं तो सँवरने का मन भी नहीं!

हमने सपनों की दुनिया सजाए रखी
शम्अ आँधी में हमने जलाए रखी
सबके सिर से दुपट्टे सरकते रहे
लाज आँचल की हमने बचाए रखी !

डॉ. मीना अग्रवाल

Tuesday, November 18, 2008

मुक्तक 28

मैं कि हूँ उसके भीतर से परिचित बहुत
जानती हूँ तो कहती हूँ विश्वास से
उसकी आँखों में होगा कोई और भी
जब वह जाएगा उठकर मेरे पास से !

क्या ये पहलू समर्पण न कहलाएगा
क्या कोई इसका मतलब समझ पाएगा
हम बनाएँगी औ' सोचती जाएँगी
क्या यह पकवान उनको पसंद आएगा !

डॉ. मीना अग्रवाल

Monday, November 17, 2008

मुक्तक 27

हमको अपने बराबर न तोला कभी
यह पुराना तरीक़ा न बदला कभी
दिल की धड़कन से गीतों की धुन फूटती
पति शासक नहीं, मित्र बनता कभी

अपने भेदों की गुत्थी न खोलेगे तुम
बस अँधेरे में रस्ता टटोलोगे तुम
घर में फिर लौटकर देर से आओगे
जानती हूँ कि फिर झूठ बोलोगे तुम

डॉ. मीना अग्रवाल

Tuesday, November 11, 2008

मुक्तक 26

हमको अपने बराबर न तोला कभी
यह पुराना तरीक़ा न बदला कभी
दिल की धड़कन से गीतों की धुन फूटती
पति शासक नहीं, मित्र बनता कभी

अपने भेदों की गुत्थी न खोलोगे तुम
बस अँधेरे में रस्ता टटोलोगे तुम
घर में फिर लौटकर देर से आओगे
जानती हूँ कि फिर झूठ बोलेगे तुम

डॉ. मीना अग्रवाल

Monday, November 10, 2008

मुक्तक 25

जाने नदिया यह सपनों की जम क्यों गई
जाने मुसकान होठों पे थम क्यों गई
जन्म बेटी का होना अशुभ क्यों हुआ
किससे पूछूँ कि माता सहम क्यों गई !

ध्यान में है वो नादान लड़की अभी
झूठे वादे जो मन से लगाए रही
लौटकर फिर कभी जिसको आना न था
उसके स्वागत में पलकें बिछाए रही !

डॉ. मीना अग्रवाल

Sunday, November 9, 2008

मुक्तक 24

सोच को दायरा कुछ नया और दे
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !

बालिका धन पराया ही समझी गई
जग मॆं सदियों से यह रीत देखी गई
आँसुओं से उमंगें गले मिल गईं
छोड़ बाबुल का घर जब भी बेटी गई

डॉ. मीना अग्रवाल

Friday, November 7, 2008

मुक्तक 23

हम डगर अपनी छोडें, यह संभव नहीं
आत्मा अपनी बदलें, यह संभव नहीं
फ़ैशनों की नुमाइश में रहते हुए
मूल से अपने बिछुड़ें यह संभव नहीं

मेरे सपनों का आदर्श मानव है
सोच यह मेरी बदले असंभव है
मेरी पहचान दुनिया में सबसे अलग
मैं हूँ भारत की नारी , मुझे गर्व है

ताज़ा फूलों के अंबार भेजूँ तुम्हें
बस अगर हो तो सौ बार भेजूँ तुम्हें
नित नई ख़ुशबुओं को जो आकार दे
सुर्ख मेंहदी की महकार भेजूँ तुम्हें

आदमी से बड़ा धन न बन पाएगा
सोचते थे समय तो बदल जाएगा
हम रहेंगे सफ़र में सदा साथ-साथ
प्यार बाँटेंगे, अपनत्व भी आएगा !

डॉ. मीना अग्रवाल

Thursday, November 6, 2008

मुक्तक 22

जो चमक है सो है धन के अंबार की
किसको चिंता है अब अपने उद्धार की
लड़कियाँ किसलिए बोझ बनने लगीं
क्यों ये दूल्हे हुए वस्तु बाज़ार की

तुमसे कोमल यह रेशम की चादर नहीं
तुमसे बढ़कर तो गहरा समंदर नहीं
यों तो पत्नी भी, बेटी भी, बहनें भी हैं
माँ से बढ़कर कोई रूप सुंदर नहीं

वर की मंडी में लगती रहीं बोलियाँ
कोई दो लाख का, कोई नौ लाख का
क्या कहूँ, जल के वो किसलिए मर गई
कल जो गुड़िया-सी थी, ढेर है राख का

कुछ तो दुनिया का नक़्शा नया चाहिए
कुछ तो माहौल बदला हुआ चाहिए
मुझको चाहत है जीवन में हमदर्द की
उसको साथी नहीं, सेविका चाहिए

डॉ. मीना अग्रवाल

Wednesday, November 5, 2008

पहचान

अंदर-अंदर टूटन
अंतर में घुटन
और मुख पर मुस्कान
खुशियाँ लुटाना
आदत-सी बन गई है उसकी
इसी आशा में
इसी प्रत्याशा में
कि शायद
वो एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा
जो नारी को
उसके अस्तित्व की
पहचान कराएगा
आदर दिलाएगा
उसके अंतर की पीड़ा से
तिलमिलाएगा समाज
और तथाकथित समाज के
योग्य और सहृदय जन
महसूस करेंगे
उसकी छटपटाहट को
देंगे नारी को
उसकी पहचान
देंगे उसे सम्मान
और जीने का अधिकार
क्योंकि नारी
टूटकर भी
सदैव रही है संपूर्ण
पक्का भरोसा है उसे कि
एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा
जब खोया हुआ अतीत
होगा उजागर
इंतज़ार है उसे
उस दिन का
जो उसे न्याय दिलाएगा
देखते हैं कब आएगा
वह भाग्यशाली एक दिन !

डॉ. मीना अग्रवाल

Tuesday, November 4, 2008

मैं और तुम

मैं, मैं हूँ
और तुम, तुम हो
तुम्हारा मन
बँधा है तुमसे
और मेरा मन तो
बँधा है सबसे
तुम गुनगुनाते हो
तो सुनती हूँ
केवल मैं
पर मेरी
आवाज़ के घुँघरू
जब बज उठते हैं
अनायास
उनकी रुनझुन
सुनाई देती है
दूर,बहुत दूर
अंतर में
मन पाता है सहारा
और तन को
मिलता है विश्वास
उस ध्वनि में
छिपा है जीवन का
मधुरिम मधुमास
पर नहीं सुनाई देती
किसी को वह ध्वनि
क्योंकि सभी ने
ओढ़ लिया है
कृत्रिमता का लिबास !

Monday, November 3, 2008

मुक्तक 21

सामने यों तो सारी दुनिया है
जानती हूँ मैं कि कौन अपना है
यों तो सब कुछ है मेरे पास मगर
तुमसे माँगूँ तो सुख-सा मिलता है

सोचती हूँ शरद के ये पंछी
रुत गुज़रते ही लौट जाएँगे
लाख आकर सजाएँगे झीलें
देस अपने भुला न पाएँगे

छत के ऊपर विमान गुज़रा है
कल्पनाएँ निहारतीं हैं तुझे
अजनबी लोग इसमें हैं लेकिन
मेरी आँखें पुकारती हैं तुझे

दर्द हुंकार बन न जाए कहीं
चीख तलवार बन न जाए कहीं
मुझको इतना न तोड़ना, देखो
गीत ललकार बन न जाए कहीं

डॉ. मीना अग्रवाल

Sunday, November 2, 2008

मुक्तक 20

आस के गुल खिलाए रखते हैं
चित्र मन में सजाए रखते हैं
अपनी बस्ती से दूर जाकर भी
लोग रिश्ते बनाए रखते हैं

गाँव मेरे बिना बसा ही नहीं
प्यार मुझसे अलग हुआ ही नहीं
मुझको कहते हैं घर की लक्ष्मी
बिन मेरे घर की कल्पना ही नहीं

तेज कितना छिपा है यौवन में
दीप-से जल गए हैं जीवन में
दुल्हनों-बेटियों से शोभा है
फूल यों तो बहुत हैं उपवन में

एक पल को न चैन से बैठी
हो गई शाम घर सजाने में
तुम जो आए तो यह हुआ आभास
कुछ कमी रह गई अजाने में

डॉ. मीना अग्रवाल