Thursday, October 23, 2008

मुक्तक 10

बहन हो कि बेटी, बहू हो कि माता
ये रिश्ते हमीं से जनम ले रहे हैं
जो बन्धन निरर्थक-से लगने लगे हैं
हम उनकी अभी तक क़सम ले रहे हैं

न पूछो कि नारी को क्या-क्या न आया
विरह में समय का बिताना न आया
अभी सिर्फ़ पहला पहर रात का है
बढ़ी माँ की चिंता कि बेटा न आया

मैं नारी हूँ, है त्याग पहचान मेरी
मेरा धर्म सेवा है, सेवा रहेगा
इसी से मुझे बल मिला , यश मिला है
ज़माने में क़द मेरा ऊँचा रहेगा

सदाचार-संकल्प संगम है मेरा
मुहब्बत का व्यवहार मरहम है मेरा
मैं रेशम-सी नाजुक हूँ, चट्टान भी हूँ
समय पर यह आँचल ही परचम है मेरा

डॉ. मीना अग्रवाल

1 comment:

seema gupta said...

नारी हूँ, है त्याग पहचान मेरी
मेरा धर्म सेवा है, सेवा रहेगा
इसी से मुझे बल मिला , यश मिला है
ज़माने में क़द मेरा ऊँचा रहेगा

" bhut sunder Meena jee pehle baar aapko pdha hai, dil ko chu gyee aapke ye kaveeta"

Regards