Thursday, October 30, 2008

मुक्तक 17

यों तो गिनती में मेरे बेटे को
मुझसे बिछुड़े ये तीसरा दिन है
मैं जो माँ हूँ तो ऐसा लगता है
जैसे हर दिन पहाड़-सा दिन है

सर से आँचल ढलक गया है मेरा
माँ अगर देखती तो क्या कहती
खा के मुझसे न बोलने की क़सम
रूठ जाती, बुरा-भला कहती

भाइयों ने भुला दिया है मुझे ?
मैं परेशान होने लगती हूँ
जब भी आती है मायके की याद
घर में छिप-छिप के रोने लगती हूँ

घटा बंजरों को भिगोती है देखो
समुंदर की सीपी में मोती है देखो
निराश इतनी होकर न बैठो सहेली
विकलता में आशा भी होती है देखो

डॉ. मीना अग्रवाल

1 comment:

Udan Tashtari said...

भावुक कर देने वाली हृदय स्पर्शी रचना............