Monday, August 9, 2010

संबंधों की सुगंध

मित्र के साथ बिताए हुए
आत्मीय संबंधों की याद
गुदगुदाने लगती थी
थके तन को
प्रफुल्लित करती थी
उदास मन को,
वह देती थी सहारा
हर क्षण जीवन को !
स्मृतियों को सँजोए मन
होता था उमंगित
और तन तरंगित
याद आने लगती थीं
रसभरी बातें
रससिक्त हो जाती थीं
नीरस रातें !
परिवार भी निकट आकर
हो गए थे एकाकार,
लेकिन जब समय बदला
नजदीकियाँ बन गईं दूरियाँ
घटने लगी
इक¬-दूजे की पहचान
किसी का न रहा अस्तित्व
न रही कोई आपसी पहचान !
पारस्परिक संबंधों में
जो दरार आई बन गई वह
कभी न पटने वाली खाई
मीठी यादों पर छा गया
कटुता का धुआँ
मन में धुआँ,
तन में धुआँ
सब ओर धुआँ ही धुआँ
जिधर भी जाओ
धुएँ का है साम्राज्य !
अंतरंग क्षणों पर
चढ़ गई कालिख
और आज परिवर्तन के
इस युग में
कालिख भी रूप बदलकर
बन गई है काई !
काई पर है
इतनी फिसलन
कि कोई भी इसपर
टिक नहीं पाता है
चलने की कोशिश में
पटकी खाकर
दूर चला जाता है
इसलिए मित्र मेरे !
संबंधों की दलदल से
बचकर चले जाओ दूर,
बहुत दूर
तभी बजेगा
जीवन का संतूर
और तुम भूल जाओगे
समाज के कलुषित द्स्तूर !
तब तुम,
महसूस कर पाओगे
संबंधों की सुगंध !

डॉ. मीना अग्रवाल

Thursday, June 17, 2010

मुक्तक 39

यदि हम सच्चे मन से देखें तो बहू और बेटी में कोई
अंतर नहीं है.जो बेटी है वह दूसरे घर की बहू है और
जो बहू है वह अपनी माँ की बेटी भी है. यदि हम इस
सत्य को जान लें तो बहू-बेटी के बीच का अंतर ही मिट
जाएगा.जो बहू-बेटी में अंतर नहीं करते हैं और बहू को
बेटी समझते हैं वे कभी दुखी नहीं रहते.उनका मानना
यही है---

यहाँ माँ अपनी बेटी को,तो सासें अपनी बहुओं को
जो पुश्तों से सुरक्षित था,वो ज़ेवर सौंप जाती हैं
विरासत में जिसे ज़ेवर कहें वह तो बहाना है
जो सच पूछो तो ममता की धरोहर सौंप जाती है.

डॉ.मीना अग्रवाल

Monday, June 7, 2010

मुक्तक 38

संबंधों की खुशबू अपनेपन से ही आती है.नर-नारी के संबंध विश्वास पर ही
टिके हुए हैं.विश्वास होगा तो एक-दूसरे की रक्षा-सुरक्षा भी कर पाएँगे.प्रेम में
शिकवे-शिकायत तो होती ही रहती है.आज ज़्ररूरत है एक-दूसरे को समझने
की--

विचारों का गगन,नयनों की आशा क्यों नहीं करते
तुम अपनों की तरह से मुझको अपना क्यों नहीं करते
अकाल इतना भयानक आएगा,यदि मुझको रौंदोगे
मैं खेती हूँ तो तुम मेरी सुरक्षा क्यों नहीं करते !

डॉ. मीना अग्रवाल

Monday, March 22, 2010

मुक्तक 37

घर में बिटिया का जन्म एक उत्सव बन जाता है.जब माँ अपने बच्चे को
पहली बार अपनी गोद में उठाती है तो उसे लगता है कि मानो सारा संसार ही
उसकी बाँहों में सिमटकर आ गया हो.देखिए माँ की इसी भावना को----

अभी चहका ही था आँचल में मेरे इक नया जीवन
बहारों का जो मौसम जा रहा था, फिर पलट आया
लिया था गोद में पहले-पहल जब अपनी बिटिया को
लगा था, विश्व जैसे मेरी बाँहों में सिमट आया .


डॉ. मीना अग्रवाल

Friday, March 12, 2010

मुक्तक 36

ये खेत हमने दिए, क्यारियाँ हमीं ने दीं
ज़मीं की गोद को फुलवारियाँ हमीं ने दीं
उदास-उदास-सी चुप से भरा हुआ था घर
तुम्हारे सुनने को किलकारियाँ हमीं ने दीं !

विरह का तीर तुम्हारी कमान छोड़ गई
बिलखती-चीख़ती विरहन की जान छोड़ गई
ज़रा-सा ध्यान जो भटका तो मौलकर चूड़ी
कलाइयों में लहू का निशान छोड़ गई

डॉ. मीना अग्रवाल

Wednesday, March 3, 2010

मुक्तक 35

समय के हाथ में जीवन का आसरा हम हैं
कला की जान हैं, कविता की आत्मा हम हैं
इक एक रूप के पीछे हमारे रूप अनेक
परी हैं, देवी हैं, नारी हैं, अप्सरा हम हैं !

किसी को हाल जो भीतर का है पता न चले
किसी को दर्द के एहसास की हवा न लगे
दुखों को सहने का ढब जानती हैं बालाएँ
उदास होके भी चेहरा उदास-सा न लगे !

डॉ. मीना अग्रवाल

Friday, February 26, 2010

मुक्तक ३४

दया पे जीना किसी की मुझे गवारा नहीं
मैं अपने आपमें पर्वत हूँ, जल की धारा नहीं
अकेली होके भी दुर्बल नहीं रही हूँ मैं
तुम्हारा साथ मुझे चाहिए, सहारा नहीं !

अलकों से अगर छाए अँधेरे तो क्या
नयनों से जो फूटे सवेरे तो क्या
संसार को कुछ प्रेम का रंग भी तो दे दें
चुनरी ने अगर रंग बिखेरे तो क्या !

होली की अनंत शुभ कामनाओं के साथ--


डॉ. मीना अग्रवाल

Friday, February 12, 2010

मुक्तक 33

वह अपनी आँखों में उमड़ी घटाएँ भेजती है
वह अपने प्यार की ठंडी हवाएँ भेजती है
कभी तो ध्यान के हाथों,कभी पवन के साथ
वह माँ है, बेटे को शुभकामनाएँ भेजती है ।

वे भोली-भाली-सी शक्लें भी साथ रहती हैं
सुनी सुनाई-सी बातें भी साथ रहती हैं
अकेले आए थे परदेस में, मगर यह क्या ?
गली- मुहल्ले की यादें भी साथ रहती हैं .