सबकी सीमाएँ अपनी-अपनी हैं
फूल की जड़ में शूल होता है
प्रेम भी तो बगैर धर्म नहीं
जंग का भी उसूल होता है
मैं हूँ नारी तो देखिए मुझको
ओस छिड़के हुए गुलाब मिले
चाहे मुस्कान हो कि आँसू हों
जब मिले मुझको बेहिसाब मिले
दूर पश्चिम में तुम जहाँ भी हो
दिल की धड़कन लहर-लहर भेजूँ
क्या वो उड़कर हवा में पहुँचेगी
बास बेले की मैं अगर भेजूँ
कहानी नहीं है खिलौना नहीं है
यह नारी हक़ीक़त में अबला नहीं है
सजाना नहीं घर उसे तोड़कर तुम
कि यह फूलदानों की शोभा नहीं है
डॉ. मीना अग्रवाल
Friday, October 31, 2008
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2 comments:
naaree jeevan par itne uttam muktak likhne ke liye sadhuwad.
giriraj
कमाल के मुक्तक हैं..एक एक शब्द मोतियों सा जड़ा हुआ है...और भाव..??? लाजवाब.
नीरज
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