मित्र के साथ बिताए हुए
आत्मीय संबंधों की याद
गुदगुदाने लगती थी
थके तन को
प्रफुल्लित करती थी
उदास मन को,
वह देती थी सहारा
हर क्षण जीवन को !
स्मृतियों को सँजोए मन
होता था उमंगित
और तन तरंगित
याद आने लगती थीं
रसभरी बातें
रससिक्त हो जाती थीं
नीरस रातें !
परिवार भी निकट आकर
हो गए थे एकाकार,
लेकिन जब समय बदला
नजदीकियाँ बन गईं दूरियाँ
घटने लगी
इक¬-दूजे की पहचान
किसी का न रहा अस्तित्व
न रही कोई आपसी पहचान !
पारस्परिक संबंधों में
जो दरार आई बन गई वह
कभी न पटने वाली खाई
मीठी यादों पर छा गया
कटुता का धुआँ
मन में धुआँ,
तन में धुआँ
सब ओर धुआँ ही धुआँ
जिधर भी जाओ
धुएँ का है साम्राज्य !
अंतरंग क्षणों पर
चढ़ गई कालिख
और आज परिवर्तन के
इस युग में
कालिख भी रूप बदलकर
बन गई है काई !
काई पर है
इतनी फिसलन
कि कोई भी इसपर
टिक नहीं पाता है
चलने की कोशिश में
पटकी खाकर
दूर चला जाता है
इसलिए मित्र मेरे !
संबंधों की दलदल से
बचकर चले जाओ दूर,
बहुत दूर
तभी बजेगा
जीवन का संतूर
और तुम भूल जाओगे
समाज के कलुषित द्स्तूर !
तब तुम,
महसूस कर पाओगे
संबंधों की सुगंध !
डॉ. मीना अग्रवाल
Monday, August 9, 2010
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