Sunday, November 2, 2008

मुक्तक 20

आस के गुल खिलाए रखते हैं
चित्र मन में सजाए रखते हैं
अपनी बस्ती से दूर जाकर भी
लोग रिश्ते बनाए रखते हैं

गाँव मेरे बिना बसा ही नहीं
प्यार मुझसे अलग हुआ ही नहीं
मुझको कहते हैं घर की लक्ष्मी
बिन मेरे घर की कल्पना ही नहीं

तेज कितना छिपा है यौवन में
दीप-से जल गए हैं जीवन में
दुल्हनों-बेटियों से शोभा है
फूल यों तो बहुत हैं उपवन में

एक पल को न चैन से बैठी
हो गई शाम घर सजाने में
तुम जो आए तो यह हुआ आभास
कुछ कमी रह गई अजाने में

डॉ. मीना अग्रवाल

6 comments:

रचना गौड़ ’भारती’ said...

good and strong feelings.keep it up.

नीरज गोस्वामी said...

कमाल के मुक्तक लिखती हैं आप...शब्द और भावः दोनों लाजवाब...रोज मर्रा की बातों को यूँ शब्दों में पिरोना आसान नहीं होता...बधाई.
नीरज

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत सुन्दर ! बधाई !

Asha Joglekar said...

सुंदर मुक्तक । पढ कर आनंद आ गया ।

विक्की निम्बल said...

तुम क्यूँ न हुए मेरे ........

तुम बिन जीना मुहाल,
तुम बिन मरना भी मुश्किल.
आँखों की उदासी सब कह दे,
जो न कह पाया ये दिल.
दिल ने तो सब कह डाला था,
पर तुम ही समझ नहीं पाए.
वो लफ्ज़ नहीं तुम सुन पाए,
जो लफ्ज़ जुबां तक न आए.
क्या करूँ शिकायत अब तुमसे,
जब फर्क नहीं पड़ने वाला.
कोरी पुस्तक के लिक्खे को,
है कौन यहाँ पढने वाला.
भीगी आँखें जो पढ़ न सका,
वो कहा सुना क्या समझेगा.
बस अपने मन की कह देगा,
बस अपने मन की कर लेगा.
कुछ नहीं पूछना है तुमसे ,
उपकार बहुत मुझ पर तेरे,
बस इतना मुझको बतला दो....
तुम क्यूँ न हुए मेरे...
तुम क्यूँ न हुए मेरे .........

V.B. Seriese.

विक्की निम्बल said...

aaiye mere blog pr aapka hardik swagat hai.