Tuesday, November 4, 2008

मैं और तुम

मैं, मैं हूँ
और तुम, तुम हो
तुम्हारा मन
बँधा है तुमसे
और मेरा मन तो
बँधा है सबसे
तुम गुनगुनाते हो
तो सुनती हूँ
केवल मैं
पर मेरी
आवाज़ के घुँघरू
जब बज उठते हैं
अनायास
उनकी रुनझुन
सुनाई देती है
दूर,बहुत दूर
अंतर में
मन पाता है सहारा
और तन को
मिलता है विश्वास
उस ध्वनि में
छिपा है जीवन का
मधुरिम मधुमास
पर नहीं सुनाई देती
किसी को वह ध्वनि
क्योंकि सभी ने
ओढ़ लिया है
कृत्रिमता का लिबास !

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

क्योंकि सभी ने
ओढ़ लिया है
कृत्रिमता का लिबास !
वाह...शाश्क्त रचना...बधाई...
नीरज

Udan Tashtari said...

बढ़िया है.