सामने यों तो सारी दुनिया है
जानती हूँ मैं कि कौन अपना है
यों तो सब कुछ है मेरे पास मगर
तुमसे माँगूँ तो सुख-सा मिलता है
सोचती हूँ शरद के ये पंछी
रुत गुज़रते ही लौट जाएँगे
लाख आकर सजाएँगे झीलें
देस अपने भुला न पाएँगे
छत के ऊपर विमान गुज़रा है
कल्पनाएँ निहारतीं हैं तुझे
अजनबी लोग इसमें हैं लेकिन
मेरी आँखें पुकारती हैं तुझे
दर्द हुंकार बन न जाए कहीं
चीख तलवार बन न जाए कहीं
मुझको इतना न तोड़ना, देखो
गीत ललकार बन न जाए कहीं
डॉ. मीना अग्रवाल
Monday, November 3, 2008
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2 comments:
fbahut khub khas kar vimaanwala
अति सुन्दर!!
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