Thursday, November 6, 2008

मुक्तक 22

जो चमक है सो है धन के अंबार की
किसको चिंता है अब अपने उद्धार की
लड़कियाँ किसलिए बोझ बनने लगीं
क्यों ये दूल्हे हुए वस्तु बाज़ार की

तुमसे कोमल यह रेशम की चादर नहीं
तुमसे बढ़कर तो गहरा समंदर नहीं
यों तो पत्नी भी, बेटी भी, बहनें भी हैं
माँ से बढ़कर कोई रूप सुंदर नहीं

वर की मंडी में लगती रहीं बोलियाँ
कोई दो लाख का, कोई नौ लाख का
क्या कहूँ, जल के वो किसलिए मर गई
कल जो गुड़िया-सी थी, ढेर है राख का

कुछ तो दुनिया का नक़्शा नया चाहिए
कुछ तो माहौल बदला हुआ चाहिए
मुझको चाहत है जीवन में हमदर्द की
उसको साथी नहीं, सेविका चाहिए

डॉ. मीना अग्रवाल

3 comments:

mehek said...

bahut khub

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर!!

hem pandey said...

यों तो पत्नी भी,बेटी भी बहन भी हैं
माँ से बढ़ कर कोई रूप सुंदर नहीं
बहुत सुंदर !