Sunday, November 9, 2008

मुक्तक 24

सोच को दायरा कुछ नया और दे
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !

बालिका धन पराया ही समझी गई
जग मॆं सदियों से यह रीत देखी गई
आँसुओं से उमंगें गले मिल गईं
छोड़ बाबुल का घर जब भी बेटी गई

डॉ. मीना अग्रवाल

4 comments:

Udan Tashtari said...

धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !


-बेहतरीन!! सटीक!!

शोभा said...

सोच को दायरा कुछ नया और दे
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !
bahut sundar.

mehek said...

waah ka baat hai sundar khas kar pehlawala

ravishndtv said...

मीना जी
बेटी के अलावा और दिया ही क्या जा सकता है? बाकी तो हम उन समझौतों पर दस्तखत करते हैं, जो बेटी देने के नाम पर करते हैं। हमारा करप्ट समाज कोई रास्ता नहीं छोड़ता। हमारे रिश्तेदार मामा,फूफा,चाचा सब मिलकर ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं कि उनकी गोद में पली बढ़ी बेटी दहेज की रकम से साथ तौल दी जाती है।
हमें लगा था कि अपनी ज़िंदगी में इसे बदलता हुआ देख लूंगा। कुछ तो बदला हुआ है मगर बचा भी तो है। डर लगता है।