Monday, November 3, 2008

मुक्तक 21

सामने यों तो सारी दुनिया है
जानती हूँ मैं कि कौन अपना है
यों तो सब कुछ है मेरे पास मगर
तुमसे माँगूँ तो सुख-सा मिलता है

सोचती हूँ शरद के ये पंछी
रुत गुज़रते ही लौट जाएँगे
लाख आकर सजाएँगे झीलें
देस अपने भुला न पाएँगे

छत के ऊपर विमान गुज़रा है
कल्पनाएँ निहारतीं हैं तुझे
अजनबी लोग इसमें हैं लेकिन
मेरी आँखें पुकारती हैं तुझे

दर्द हुंकार बन न जाए कहीं
चीख तलवार बन न जाए कहीं
मुझको इतना न तोड़ना, देखो
गीत ललकार बन न जाए कहीं

डॉ. मीना अग्रवाल

2 comments:

mehek said...

fbahut khub khas kar vimaanwala

Udan Tashtari said...

अति सुन्दर!!