Wednesday, January 21, 2009

मुक्तक 32

तपन बढ़ी है तो तन-मन जला है अब के बरस
शरद की रुत में भी सूरज तपा है अब के बरस
चला गया है जो अश्कों को पोंछने वाला
हमारी आँखों में सूखा पड़ा है अब के बरस

वह अब तो शाम को घर लौटकर नहीं आता
उसे मिली भी जो मंज़िल तो इतनी दूर मिली
सुना है पार समुंदर, पराए देश में है
जो उसने नौकरी ढूँढी तो कितनी दूर मिली

डॉ. मीना अग्रवाल

2 comments:

शोभा said...

तपन बढ़ी है तो तन-मन जला है अब के बरस
शरद की रुत में भी सूरज तपा है अब के बरस
चला गया है जो अश्कों को पोंछने वाला
हमारी आँखों में सूखा पड़ा है अब के बरस
bahut badhiya

Vinay said...

dr. sahiba bahut achchha likha hai, badhai

---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम