तपन बढ़ी है तो तन-मन जला है अब के बरस
शरद की रुत में भी सूरज तपा है अब के बरस
चला गया है जो अश्कों को पोंछने वाला
हमारी आँखों में सूखा पड़ा है अब के बरस
वह अब तो शाम को घर लौटकर नहीं आता
उसे मिली भी जो मंज़िल तो इतनी दूर मिली
सुना है पार समुंदर, पराए देश में है
जो उसने नौकरी ढूँढी तो कितनी दूर मिली
डॉ. मीना अग्रवाल
Wednesday, January 21, 2009
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2 comments:
तपन बढ़ी है तो तन-मन जला है अब के बरस
शरद की रुत में भी सूरज तपा है अब के बरस
चला गया है जो अश्कों को पोंछने वाला
हमारी आँखों में सूखा पड़ा है अब के बरस
bahut badhiya
dr. sahiba bahut achchha likha hai, badhai
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
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