अपनी पीड़ा कहें, यह चलन भी नहीं
तुमसे मिलने का कोई जतन भी नहीं
कैसी अलसाई बैठी हूँ अँगनाई में,
तुम नहीं तो सँवरने का मन भी नहीं!
हमने सपनों की दुनिया सजाए रखी
शम्अ आँधी में हमने जलाए रखी
सबके सिर से दुपट्टे सरकते रहे
लाज आँचल की हमने बचाए रखी !
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, November 23, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
bahut sundar muktak haibadhaai
अपनी पीड़ा कहें, यह चलन भी नहीं
तुमसे मिलने का कोई जतन भी नहीं
कैसी अलसाई बैठी हूँ अँगनाई में,
तुम नहीं तो सँवरने का मन भी नहीं!.....
बहुत खूब क्या कहना .
आपके मुक्तकों की ये शब्दावली.
मन को छूती है, सुनने में लगती भली,
भावनाओं को सहलाती है प्यार से,
इसका कोमल सा स्पर्श है मखमली.
अपनी पीड़ा कहें, यह चलन भी नहीं
तुमसे मिलने का कोई जतन भी नहीं
कैसी अलसाई बैठी हूँ अँगनाई में,
तुम नहीं तो सँवरने का मन भी नहीं!
हमने सपनों की दुनिया सजाए रखी
शम्अ आँधी में हमने जलाए रखी
सबके सिर से दुपट्टे सरकते रहे
लाज आँचल की हमने बचाए रखी !
मै आपके ब्लाग में इस रचना को नहीं पढ पा रही थी । यहां पर कापी पेस्ट किया , तो पढ पा रही हूं। किसी और को भी दिक्कत हो सकती है , इसलिए टिप्पणी में इसे रहने दिया है। बहुत अच्छी रचना है। बधाई।
Post a Comment