आस के गुल खिलाए रखते हैं
चित्र मन में सजाए रखते हैं
अपनी बस्ती से दूर जाकर भी
लोग रिश्ते बनाए रखते हैं
गाँव मेरे बिना बसा ही नहीं
प्यार मुझसे अलग हुआ ही नहीं
मुझको कहते हैं घर की लक्ष्मी
बिन मेरे घर की कल्पना ही नहीं
तेज कितना छिपा है यौवन में
दीप-से जल गए हैं जीवन में
दुल्हनों-बेटियों से शोभा है
फूल यों तो बहुत हैं उपवन में
एक पल को न चैन से बैठी
हो गई शाम घर सजाने में
तुम जो आए तो यह हुआ आभास
कुछ कमी रह गई अजाने में
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, November 2, 2008
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6 comments:
good and strong feelings.keep it up.
कमाल के मुक्तक लिखती हैं आप...शब्द और भावः दोनों लाजवाब...रोज मर्रा की बातों को यूँ शब्दों में पिरोना आसान नहीं होता...बधाई.
नीरज
बहुत सुन्दर ! बधाई !
सुंदर मुक्तक । पढ कर आनंद आ गया ।
तुम क्यूँ न हुए मेरे ........
तुम बिन जीना मुहाल,
तुम बिन मरना भी मुश्किल.
आँखों की उदासी सब कह दे,
जो न कह पाया ये दिल.
दिल ने तो सब कह डाला था,
पर तुम ही समझ नहीं पाए.
वो लफ्ज़ नहीं तुम सुन पाए,
जो लफ्ज़ जुबां तक न आए.
क्या करूँ शिकायत अब तुमसे,
जब फर्क नहीं पड़ने वाला.
कोरी पुस्तक के लिक्खे को,
है कौन यहाँ पढने वाला.
भीगी आँखें जो पढ़ न सका,
वो कहा सुना क्या समझेगा.
बस अपने मन की कह देगा,
बस अपने मन की कर लेगा.
कुछ नहीं पूछना है तुमसे ,
उपकार बहुत मुझ पर तेरे,
बस इतना मुझको बतला दो....
तुम क्यूँ न हुए मेरे...
तुम क्यूँ न हुए मेरे .........
V.B. Seriese.
aaiye mere blog pr aapka hardik swagat hai.
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