अपनी पीड़ा कहें, यह चलन भी नहीं
तुमसे मिलने का कोई जतन भी नहीं
कैसी अलसाई बैठी हूँ अँगनाई में,
तुम नहीं तो सँवरने का मन भी नहीं!
हमने सपनों की दुनिया सजाए रखी
शम्अ आँधी में हमने जलाए रखी
सबके सिर से दुपट्टे सरकते रहे
लाज आँचल की हमने बचाए रखी !
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, November 23, 2008
Tuesday, November 18, 2008
मुक्तक 28
मैं कि हूँ उसके भीतर से परिचित बहुत
जानती हूँ तो कहती हूँ विश्वास से
उसकी आँखों में होगा कोई और भी
जब वह जाएगा उठकर मेरे पास से !
क्या ये पहलू समर्पण न कहलाएगा
क्या कोई इसका मतलब समझ पाएगा
हम बनाएँगी औ' सोचती जाएँगी
क्या यह पकवान उनको पसंद आएगा !
डॉ. मीना अग्रवाल
जानती हूँ तो कहती हूँ विश्वास से
उसकी आँखों में होगा कोई और भी
जब वह जाएगा उठकर मेरे पास से !
क्या ये पहलू समर्पण न कहलाएगा
क्या कोई इसका मतलब समझ पाएगा
हम बनाएँगी औ' सोचती जाएँगी
क्या यह पकवान उनको पसंद आएगा !
डॉ. मीना अग्रवाल
Monday, November 17, 2008
मुक्तक 27
हमको अपने बराबर न तोला कभी
यह पुराना तरीक़ा न बदला कभी
दिल की धड़कन से गीतों की धुन फूटती
पति शासक नहीं, मित्र बनता कभी
अपने भेदों की गुत्थी न खोलेगे तुम
बस अँधेरे में रस्ता टटोलोगे तुम
घर में फिर लौटकर देर से आओगे
जानती हूँ कि फिर झूठ बोलोगे तुम
डॉ. मीना अग्रवाल
यह पुराना तरीक़ा न बदला कभी
दिल की धड़कन से गीतों की धुन फूटती
पति शासक नहीं, मित्र बनता कभी
अपने भेदों की गुत्थी न खोलेगे तुम
बस अँधेरे में रस्ता टटोलोगे तुम
घर में फिर लौटकर देर से आओगे
जानती हूँ कि फिर झूठ बोलोगे तुम
डॉ. मीना अग्रवाल
Tuesday, November 11, 2008
मुक्तक 26
हमको अपने बराबर न तोला कभी
यह पुराना तरीक़ा न बदला कभी
दिल की धड़कन से गीतों की धुन फूटती
पति शासक नहीं, मित्र बनता कभी
अपने भेदों की गुत्थी न खोलोगे तुम
बस अँधेरे में रस्ता टटोलोगे तुम
घर में फिर लौटकर देर से आओगे
जानती हूँ कि फिर झूठ बोलेगे तुम
डॉ. मीना अग्रवाल
यह पुराना तरीक़ा न बदला कभी
दिल की धड़कन से गीतों की धुन फूटती
पति शासक नहीं, मित्र बनता कभी
अपने भेदों की गुत्थी न खोलोगे तुम
बस अँधेरे में रस्ता टटोलोगे तुम
घर में फिर लौटकर देर से आओगे
जानती हूँ कि फिर झूठ बोलेगे तुम
डॉ. मीना अग्रवाल
Monday, November 10, 2008
मुक्तक 25
जाने नदिया यह सपनों की जम क्यों गई
जाने मुसकान होठों पे थम क्यों गई
जन्म बेटी का होना अशुभ क्यों हुआ
किससे पूछूँ कि माता सहम क्यों गई !
ध्यान में है वो नादान लड़की अभी
झूठे वादे जो मन से लगाए रही
लौटकर फिर कभी जिसको आना न था
उसके स्वागत में पलकें बिछाए रही !
डॉ. मीना अग्रवाल
जाने मुसकान होठों पे थम क्यों गई
जन्म बेटी का होना अशुभ क्यों हुआ
किससे पूछूँ कि माता सहम क्यों गई !
ध्यान में है वो नादान लड़की अभी
झूठे वादे जो मन से लगाए रही
लौटकर फिर कभी जिसको आना न था
उसके स्वागत में पलकें बिछाए रही !
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, November 9, 2008
मुक्तक 24
सोच को दायरा कुछ नया और दे
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !
बालिका धन पराया ही समझी गई
जग मॆं सदियों से यह रीत देखी गई
आँसुओं से उमंगें गले मिल गईं
छोड़ बाबुल का घर जब भी बेटी गई
डॉ. मीना अग्रवाल
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !
बालिका धन पराया ही समझी गई
जग मॆं सदियों से यह रीत देखी गई
आँसुओं से उमंगें गले मिल गईं
छोड़ बाबुल का घर जब भी बेटी गई
डॉ. मीना अग्रवाल
Friday, November 7, 2008
मुक्तक 23
हम डगर अपनी छोडें, यह संभव नहीं
आत्मा अपनी बदलें, यह संभव नहीं
फ़ैशनों की नुमाइश में रहते हुए
मूल से अपने बिछुड़ें यह संभव नहीं
मेरे सपनों का आदर्श मानव है
सोच यह मेरी बदले असंभव है
मेरी पहचान दुनिया में सबसे अलग
मैं हूँ भारत की नारी , मुझे गर्व है
ताज़ा फूलों के अंबार भेजूँ तुम्हें
बस अगर हो तो सौ बार भेजूँ तुम्हें
नित नई ख़ुशबुओं को जो आकार दे
सुर्ख मेंहदी की महकार भेजूँ तुम्हें
आदमी से बड़ा धन न बन पाएगा
सोचते थे समय तो बदल जाएगा
हम रहेंगे सफ़र में सदा साथ-साथ
प्यार बाँटेंगे, अपनत्व भी आएगा !
डॉ. मीना अग्रवाल
आत्मा अपनी बदलें, यह संभव नहीं
फ़ैशनों की नुमाइश में रहते हुए
मूल से अपने बिछुड़ें यह संभव नहीं
मेरे सपनों का आदर्श मानव है
सोच यह मेरी बदले असंभव है
मेरी पहचान दुनिया में सबसे अलग
मैं हूँ भारत की नारी , मुझे गर्व है
ताज़ा फूलों के अंबार भेजूँ तुम्हें
बस अगर हो तो सौ बार भेजूँ तुम्हें
नित नई ख़ुशबुओं को जो आकार दे
सुर्ख मेंहदी की महकार भेजूँ तुम्हें
आदमी से बड़ा धन न बन पाएगा
सोचते थे समय तो बदल जाएगा
हम रहेंगे सफ़र में सदा साथ-साथ
प्यार बाँटेंगे, अपनत्व भी आएगा !
डॉ. मीना अग्रवाल
Thursday, November 6, 2008
मुक्तक 22
जो चमक है सो है धन के अंबार की
किसको चिंता है अब अपने उद्धार की
लड़कियाँ किसलिए बोझ बनने लगीं
क्यों ये दूल्हे हुए वस्तु बाज़ार की
तुमसे कोमल यह रेशम की चादर नहीं
तुमसे बढ़कर तो गहरा समंदर नहीं
यों तो पत्नी भी, बेटी भी, बहनें भी हैं
माँ से बढ़कर कोई रूप सुंदर नहीं
वर की मंडी में लगती रहीं बोलियाँ
कोई दो लाख का, कोई नौ लाख का
क्या कहूँ, जल के वो किसलिए मर गई
कल जो गुड़िया-सी थी, ढेर है राख का
कुछ तो दुनिया का नक़्शा नया चाहिए
कुछ तो माहौल बदला हुआ चाहिए
मुझको चाहत है जीवन में हमदर्द की
उसको साथी नहीं, सेविका चाहिए
डॉ. मीना अग्रवाल
किसको चिंता है अब अपने उद्धार की
लड़कियाँ किसलिए बोझ बनने लगीं
क्यों ये दूल्हे हुए वस्तु बाज़ार की
तुमसे कोमल यह रेशम की चादर नहीं
तुमसे बढ़कर तो गहरा समंदर नहीं
यों तो पत्नी भी, बेटी भी, बहनें भी हैं
माँ से बढ़कर कोई रूप सुंदर नहीं
वर की मंडी में लगती रहीं बोलियाँ
कोई दो लाख का, कोई नौ लाख का
क्या कहूँ, जल के वो किसलिए मर गई
कल जो गुड़िया-सी थी, ढेर है राख का
कुछ तो दुनिया का नक़्शा नया चाहिए
कुछ तो माहौल बदला हुआ चाहिए
मुझको चाहत है जीवन में हमदर्द की
उसको साथी नहीं, सेविका चाहिए
डॉ. मीना अग्रवाल
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Wednesday, November 5, 2008
पहचान
अंदर-अंदर टूटन
अंतर में घुटन
और मुख पर मुस्कान
खुशियाँ लुटाना
आदत-सी बन गई है उसकी
इसी आशा में
इसी प्रत्याशा में
कि शायद
वो एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा
जो नारी को
उसके अस्तित्व की
पहचान कराएगा
आदर दिलाएगा
उसके अंतर की पीड़ा से
तिलमिलाएगा समाज
और तथाकथित समाज के
योग्य और सहृदय जन
महसूस करेंगे
उसकी छटपटाहट को
देंगे नारी को
उसकी पहचान
देंगे उसे सम्मान
और जीने का अधिकार
क्योंकि नारी
टूटकर भी
सदैव रही है संपूर्ण
पक्का भरोसा है उसे कि
एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा
जब खोया हुआ अतीत
होगा उजागर
इंतज़ार है उसे
उस दिन का
जो उसे न्याय दिलाएगा
देखते हैं कब आएगा
वह भाग्यशाली एक दिन !
डॉ. मीना अग्रवाल
अंतर में घुटन
और मुख पर मुस्कान
खुशियाँ लुटाना
आदत-सी बन गई है उसकी
इसी आशा में
इसी प्रत्याशा में
कि शायद
वो एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा
जो नारी को
उसके अस्तित्व की
पहचान कराएगा
आदर दिलाएगा
उसके अंतर की पीड़ा से
तिलमिलाएगा समाज
और तथाकथित समाज के
योग्य और सहृदय जन
महसूस करेंगे
उसकी छटपटाहट को
देंगे नारी को
उसकी पहचान
देंगे उसे सम्मान
और जीने का अधिकार
क्योंकि नारी
टूटकर भी
सदैव रही है संपूर्ण
पक्का भरोसा है उसे कि
एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा
जब खोया हुआ अतीत
होगा उजागर
इंतज़ार है उसे
उस दिन का
जो उसे न्याय दिलाएगा
देखते हैं कब आएगा
वह भाग्यशाली एक दिन !
डॉ. मीना अग्रवाल
Tuesday, November 4, 2008
मैं और तुम
मैं, मैं हूँ
और तुम, तुम हो
तुम्हारा मन
बँधा है तुमसे
और मेरा मन तो
बँधा है सबसे
तुम गुनगुनाते हो
तो सुनती हूँ
केवल मैं
पर मेरी
आवाज़ के घुँघरू
जब बज उठते हैं
अनायास
उनकी रुनझुन
सुनाई देती है
दूर,बहुत दूर
अंतर में
मन पाता है सहारा
और तन को
मिलता है विश्वास
उस ध्वनि में
छिपा है जीवन का
मधुरिम मधुमास
पर नहीं सुनाई देती
किसी को वह ध्वनि
क्योंकि सभी ने
ओढ़ लिया है
कृत्रिमता का लिबास !
और तुम, तुम हो
तुम्हारा मन
बँधा है तुमसे
और मेरा मन तो
बँधा है सबसे
तुम गुनगुनाते हो
तो सुनती हूँ
केवल मैं
पर मेरी
आवाज़ के घुँघरू
जब बज उठते हैं
अनायास
उनकी रुनझुन
सुनाई देती है
दूर,बहुत दूर
अंतर में
मन पाता है सहारा
और तन को
मिलता है विश्वास
उस ध्वनि में
छिपा है जीवन का
मधुरिम मधुमास
पर नहीं सुनाई देती
किसी को वह ध्वनि
क्योंकि सभी ने
ओढ़ लिया है
कृत्रिमता का लिबास !
Monday, November 3, 2008
मुक्तक 21
सामने यों तो सारी दुनिया है
जानती हूँ मैं कि कौन अपना है
यों तो सब कुछ है मेरे पास मगर
तुमसे माँगूँ तो सुख-सा मिलता है
सोचती हूँ शरद के ये पंछी
रुत गुज़रते ही लौट जाएँगे
लाख आकर सजाएँगे झीलें
देस अपने भुला न पाएँगे
छत के ऊपर विमान गुज़रा है
कल्पनाएँ निहारतीं हैं तुझे
अजनबी लोग इसमें हैं लेकिन
मेरी आँखें पुकारती हैं तुझे
दर्द हुंकार बन न जाए कहीं
चीख तलवार बन न जाए कहीं
मुझको इतना न तोड़ना, देखो
गीत ललकार बन न जाए कहीं
डॉ. मीना अग्रवाल
जानती हूँ मैं कि कौन अपना है
यों तो सब कुछ है मेरे पास मगर
तुमसे माँगूँ तो सुख-सा मिलता है
सोचती हूँ शरद के ये पंछी
रुत गुज़रते ही लौट जाएँगे
लाख आकर सजाएँगे झीलें
देस अपने भुला न पाएँगे
छत के ऊपर विमान गुज़रा है
कल्पनाएँ निहारतीं हैं तुझे
अजनबी लोग इसमें हैं लेकिन
मेरी आँखें पुकारती हैं तुझे
दर्द हुंकार बन न जाए कहीं
चीख तलवार बन न जाए कहीं
मुझको इतना न तोड़ना, देखो
गीत ललकार बन न जाए कहीं
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, November 2, 2008
मुक्तक 20
आस के गुल खिलाए रखते हैं
चित्र मन में सजाए रखते हैं
अपनी बस्ती से दूर जाकर भी
लोग रिश्ते बनाए रखते हैं
गाँव मेरे बिना बसा ही नहीं
प्यार मुझसे अलग हुआ ही नहीं
मुझको कहते हैं घर की लक्ष्मी
बिन मेरे घर की कल्पना ही नहीं
तेज कितना छिपा है यौवन में
दीप-से जल गए हैं जीवन में
दुल्हनों-बेटियों से शोभा है
फूल यों तो बहुत हैं उपवन में
एक पल को न चैन से बैठी
हो गई शाम घर सजाने में
तुम जो आए तो यह हुआ आभास
कुछ कमी रह गई अजाने में
डॉ. मीना अग्रवाल
चित्र मन में सजाए रखते हैं
अपनी बस्ती से दूर जाकर भी
लोग रिश्ते बनाए रखते हैं
गाँव मेरे बिना बसा ही नहीं
प्यार मुझसे अलग हुआ ही नहीं
मुझको कहते हैं घर की लक्ष्मी
बिन मेरे घर की कल्पना ही नहीं
तेज कितना छिपा है यौवन में
दीप-से जल गए हैं जीवन में
दुल्हनों-बेटियों से शोभा है
फूल यों तो बहुत हैं उपवन में
एक पल को न चैन से बैठी
हो गई शाम घर सजाने में
तुम जो आए तो यह हुआ आभास
कुछ कमी रह गई अजाने में
डॉ. मीना अग्रवाल
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