सोच को दायरा कुछ नया और दे
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !
बालिका धन पराया ही समझी गई
जग मॆं सदियों से यह रीत देखी गई
आँसुओं से उमंगें गले मिल गईं
छोड़ बाबुल का घर जब भी बेटी गई
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, November 9, 2008
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4 comments:
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !
-बेहतरीन!! सटीक!!
सोच को दायरा कुछ नया और दे
इस अँधेरे को मन का दिया और दे
धन के लोभी से यह बात पूछे कोई
दान दी जिसने बेटी वो क्या और दे !
bahut sundar.
waah ka baat hai sundar khas kar pehlawala
मीना जी
बेटी के अलावा और दिया ही क्या जा सकता है? बाकी तो हम उन समझौतों पर दस्तखत करते हैं, जो बेटी देने के नाम पर करते हैं। हमारा करप्ट समाज कोई रास्ता नहीं छोड़ता। हमारे रिश्तेदार मामा,फूफा,चाचा सब मिलकर ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं कि उनकी गोद में पली बढ़ी बेटी दहेज की रकम से साथ तौल दी जाती है।
हमें लगा था कि अपनी ज़िंदगी में इसे बदलता हुआ देख लूंगा। कुछ तो बदला हुआ है मगर बचा भी तो है। डर लगता है।
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