बिन काम किए हाथ न अपना पोंछें
बेकार न रूमाल से चेहरा पोंछें
है बीच में विराम महापाप हमें
हम काम से निपटें तो पसीना पोंछें
जग को सँवारने की शपथ ले रही हैं हम
नौका तुम्हारी ज्वार में भी खे रही हैं हम
एहसान क्या चुकाओगे, हम नारियों का तुम
सेना को वीर, रण को लहू दे रही हैं हम
अनजान रास्तों से गुज़रने की सोचते
घर छोड़ने से पहले सँवरने की सोचते
उँगली पकड़ के हम न चलातीं तो आज तुम
क्या नभ की घाटियों में उतरने की सोचते
जीवन की कालिमा का सवेरा कहो हमें
अँगनाइयों में घर का उजाला कहो हमें
गाड़ी में संतुलन न रहे, हम अगर न हों
जीवन के रथ का दूसरा पहिया कहो हमें
डॉ. मीना अग्रवाल
Wednesday, October 29, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
बढ़िया है!!!
Post a Comment