पारा मुहब्बतों का उतरने नहीं दिया
यादों के कारवाँ को गुज़रने नहीं दिया
घर-घर के बीच बुनती रहीं चाहतों के जाल
नारी ने यह समाज बिखरने नहीं दिया
जीने के रंग-ढंग बताता नहीं कोई
बाहर से चेतना को जगाता नहीं कोई
वे खुद ही सीख लेती हैं पढ़ना निगाह का
यह ज्ञान लड़कियों को सिखाता नहीं कोई
ममता की भावना से हैं बाँहें खुली हुईं
सब दर खुले हैं, सारी दिशाएँ खुली हुईं
नारी को बेख़बर न समझना कि उसके हैं
हर अंग में शरीर के आँखें लगी हुईं
सौ बार टूट-टूट के साबित रही हूँ मैं
पीड़ाएँ झेल-झेल के हर्षित रही हूँ मैं
हाथों से अपने जिसको सँवारा, युवा किया
पुरुषों के उस समाज में शोषित रही हूँ मैं
डॉ. मीना अग्रवाल
Tuesday, October 28, 2008
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4 comments:
पारा मुहब्बतों का उतरने नहीं दिया
यादों के कारवाँ को गुज़रने नहीं दिया
घर-घर के बीच बुनती रहीं चाहतों के जाल
नारी ने यह समाज बिखरने नहीं दिया
-ये बढ़िया हैं. आखिरी वाले में तो आपने पूरे पुरुष समाज को एक ही तराजू में तौल दिया. ऐसी भी क्या नाराजगी?
सादर
समीर लाल
janha seeta bhee sukh pa naa saki, tu us dharti kee nari hai, jo julm teri takdeer me hai wo julm yugon se jaari hai.
baat karunga prabhu se
narayan narayan
यादों के कारवाँ को गुजरने से न रोकिये।
यादों के सहारे ही तो चलती है जिन्दगी।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
achhi lagi ye kavita
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