एक दिन अचानक सुना
कि मरा है कोई आदमी
लेकिन मरने वाले को
तब यह पता चला
कि वह अब तक ज़िंदा था
इसी तरह
हर दिन,हर क्षण
दौड़ता है हर आदमी
उसे अवकाश ही कहाँ
यह जानने का
कि अब तक ज़िंदा है वह
दौड़ता रहा,दौड़ता रहा यूँ ही
जब ज़िंदगी चली गई दूर,
बहुत दूर,
तब उसे पता चला
कि ज़िंदा था वह!
इसी तरह
भविष्य में जीता है
प्रत्येक महत्त्वाकांक्षी
और वर्तमान में होती है
उसकी ज़िंदगी
वह जीता है
कल की आशा में
आगे बहुत आगे,
और आगे
पहुँचने की प्रत्याशा में।
आज वह दुखी है,
पीड़ित है और परेशान है
क्योंकि
सुखी तो उसे कल होना है
कल पहुँचना है
सबसे आगे
वह जानकर भी
यह नहीं जानना चाहता
कि कल,
न कभी आया है
और कल,
न कभी आयेगा
क्योंकि अस्तित्व है
बस वर्तमान का
और शाश्वत है
केवल आज !
डॉ. मीना अग्रवाल
Tuesday, July 5, 2011
Saturday, February 19, 2011
दृढ़ आधार
मन मेरे
तू क्यों रहता है
इतना बैचैन !
क्या तुझे पता नहीं
कि बचपन से अब तक
इसी तरह खामोश
रहना पड़ा है तुझे !
अब तो अपनी
आदत सुधार,
अब तो अपने
अनमोल समय को
इतना कुछ सोचने में
मत कर बेकार,
आदत डाल
सब-कुछ सहने की
और विरोध में
कुछ भी न कहने की
व्यर्थ भावों में न बहने की
ऐसा करने पर
तुझे अवसर मिलेगा
अपना काम करने का
अपने अमूल्य समय को
बचाने का
क्योंकि सोचने में तो,
मन उलझता ही जाता है।
उसे विचारों के चक्रव्यूह से
बाहर निकलने का
अवसर ही नहीं मिलता;
जिस समय
बहुत कुछ रचनात्मक
किया जा सकता है
वह समय
व्यर्थ की उलझनों में ही
चुक जाता है,
इसलिए मन मेरे
तू स्वयं को पहचान
दे मजबूत आधार
जिससे कर पाऊँ
कुछ रचनात्मक
कुछ ऐसा
जो बन सके
उदाहरण
और मेरे बाद भी
उसे दोहराएँ
आने वाली पीढ़ियाँ ।
डॉ.मीना अग्रवाल
तू क्यों रहता है
इतना बैचैन !
क्या तुझे पता नहीं
कि बचपन से अब तक
इसी तरह खामोश
रहना पड़ा है तुझे !
अब तो अपनी
आदत सुधार,
अब तो अपने
अनमोल समय को
इतना कुछ सोचने में
मत कर बेकार,
आदत डाल
सब-कुछ सहने की
और विरोध में
कुछ भी न कहने की
व्यर्थ भावों में न बहने की
ऐसा करने पर
तुझे अवसर मिलेगा
अपना काम करने का
अपने अमूल्य समय को
बचाने का
क्योंकि सोचने में तो,
मन उलझता ही जाता है।
उसे विचारों के चक्रव्यूह से
बाहर निकलने का
अवसर ही नहीं मिलता;
जिस समय
बहुत कुछ रचनात्मक
किया जा सकता है
वह समय
व्यर्थ की उलझनों में ही
चुक जाता है,
इसलिए मन मेरे
तू स्वयं को पहचान
दे मजबूत आधार
जिससे कर पाऊँ
कुछ रचनात्मक
कुछ ऐसा
जो बन सके
उदाहरण
और मेरे बाद भी
उसे दोहराएँ
आने वाली पीढ़ियाँ ।
डॉ.मीना अग्रवाल
Monday, August 9, 2010
संबंधों की सुगंध
मित्र के साथ बिताए हुए
आत्मीय संबंधों की याद
गुदगुदाने लगती थी
थके तन को
प्रफुल्लित करती थी
उदास मन को,
वह देती थी सहारा
हर क्षण जीवन को !
स्मृतियों को सँजोए मन
होता था उमंगित
और तन तरंगित
याद आने लगती थीं
रसभरी बातें
रससिक्त हो जाती थीं
नीरस रातें !
परिवार भी निकट आकर
हो गए थे एकाकार,
लेकिन जब समय बदला
नजदीकियाँ बन गईं दूरियाँ
घटने लगी
इक¬-दूजे की पहचान
किसी का न रहा अस्तित्व
न रही कोई आपसी पहचान !
पारस्परिक संबंधों में
जो दरार आई बन गई वह
कभी न पटने वाली खाई
मीठी यादों पर छा गया
कटुता का धुआँ
मन में धुआँ,
तन में धुआँ
सब ओर धुआँ ही धुआँ
जिधर भी जाओ
धुएँ का है साम्राज्य !
अंतरंग क्षणों पर
चढ़ गई कालिख
और आज परिवर्तन के
इस युग में
कालिख भी रूप बदलकर
बन गई है काई !
काई पर है
इतनी फिसलन
कि कोई भी इसपर
टिक नहीं पाता है
चलने की कोशिश में
पटकी खाकर
दूर चला जाता है
इसलिए मित्र मेरे !
संबंधों की दलदल से
बचकर चले जाओ दूर,
बहुत दूर
तभी बजेगा
जीवन का संतूर
और तुम भूल जाओगे
समाज के कलुषित द्स्तूर !
तब तुम,
महसूस कर पाओगे
संबंधों की सुगंध !
डॉ. मीना अग्रवाल
आत्मीय संबंधों की याद
गुदगुदाने लगती थी
थके तन को
प्रफुल्लित करती थी
उदास मन को,
वह देती थी सहारा
हर क्षण जीवन को !
स्मृतियों को सँजोए मन
होता था उमंगित
और तन तरंगित
याद आने लगती थीं
रसभरी बातें
रससिक्त हो जाती थीं
नीरस रातें !
परिवार भी निकट आकर
हो गए थे एकाकार,
लेकिन जब समय बदला
नजदीकियाँ बन गईं दूरियाँ
घटने लगी
इक¬-दूजे की पहचान
किसी का न रहा अस्तित्व
न रही कोई आपसी पहचान !
पारस्परिक संबंधों में
जो दरार आई बन गई वह
कभी न पटने वाली खाई
मीठी यादों पर छा गया
कटुता का धुआँ
मन में धुआँ,
तन में धुआँ
सब ओर धुआँ ही धुआँ
जिधर भी जाओ
धुएँ का है साम्राज्य !
अंतरंग क्षणों पर
चढ़ गई कालिख
और आज परिवर्तन के
इस युग में
कालिख भी रूप बदलकर
बन गई है काई !
काई पर है
इतनी फिसलन
कि कोई भी इसपर
टिक नहीं पाता है
चलने की कोशिश में
पटकी खाकर
दूर चला जाता है
इसलिए मित्र मेरे !
संबंधों की दलदल से
बचकर चले जाओ दूर,
बहुत दूर
तभी बजेगा
जीवन का संतूर
और तुम भूल जाओगे
समाज के कलुषित द्स्तूर !
तब तुम,
महसूस कर पाओगे
संबंधों की सुगंध !
डॉ. मीना अग्रवाल
Thursday, June 17, 2010
मुक्तक 39
यदि हम सच्चे मन से देखें तो बहू और बेटी में कोई
अंतर नहीं है.जो बेटी है वह दूसरे घर की बहू है और
जो बहू है वह अपनी माँ की बेटी भी है. यदि हम इस
सत्य को जान लें तो बहू-बेटी के बीच का अंतर ही मिट
जाएगा.जो बहू-बेटी में अंतर नहीं करते हैं और बहू को
बेटी समझते हैं वे कभी दुखी नहीं रहते.उनका मानना
यही है---
यहाँ माँ अपनी बेटी को,तो सासें अपनी बहुओं को
जो पुश्तों से सुरक्षित था,वो ज़ेवर सौंप जाती हैं
विरासत में जिसे ज़ेवर कहें वह तो बहाना है
जो सच पूछो तो ममता की धरोहर सौंप जाती है.
डॉ.मीना अग्रवाल
अंतर नहीं है.जो बेटी है वह दूसरे घर की बहू है और
जो बहू है वह अपनी माँ की बेटी भी है. यदि हम इस
सत्य को जान लें तो बहू-बेटी के बीच का अंतर ही मिट
जाएगा.जो बहू-बेटी में अंतर नहीं करते हैं और बहू को
बेटी समझते हैं वे कभी दुखी नहीं रहते.उनका मानना
यही है---
यहाँ माँ अपनी बेटी को,तो सासें अपनी बहुओं को
जो पुश्तों से सुरक्षित था,वो ज़ेवर सौंप जाती हैं
विरासत में जिसे ज़ेवर कहें वह तो बहाना है
जो सच पूछो तो ममता की धरोहर सौंप जाती है.
डॉ.मीना अग्रवाल
Monday, June 7, 2010
मुक्तक 38
संबंधों की खुशबू अपनेपन से ही आती है.नर-नारी के संबंध विश्वास पर ही
टिके हुए हैं.विश्वास होगा तो एक-दूसरे की रक्षा-सुरक्षा भी कर पाएँगे.प्रेम में
शिकवे-शिकायत तो होती ही रहती है.आज ज़्ररूरत है एक-दूसरे को समझने
की--
विचारों का गगन,नयनों की आशा क्यों नहीं करते
तुम अपनों की तरह से मुझको अपना क्यों नहीं करते
अकाल इतना भयानक आएगा,यदि मुझको रौंदोगे
मैं खेती हूँ तो तुम मेरी सुरक्षा क्यों नहीं करते !
डॉ. मीना अग्रवाल
टिके हुए हैं.विश्वास होगा तो एक-दूसरे की रक्षा-सुरक्षा भी कर पाएँगे.प्रेम में
शिकवे-शिकायत तो होती ही रहती है.आज ज़्ररूरत है एक-दूसरे को समझने
की--
विचारों का गगन,नयनों की आशा क्यों नहीं करते
तुम अपनों की तरह से मुझको अपना क्यों नहीं करते
अकाल इतना भयानक आएगा,यदि मुझको रौंदोगे
मैं खेती हूँ तो तुम मेरी सुरक्षा क्यों नहीं करते !
डॉ. मीना अग्रवाल
Monday, March 22, 2010
मुक्तक 37
घर में बिटिया का जन्म एक उत्सव बन जाता है.जब माँ अपने बच्चे को
पहली बार अपनी गोद में उठाती है तो उसे लगता है कि मानो सारा संसार ही
उसकी बाँहों में सिमटकर आ गया हो.देखिए माँ की इसी भावना को----
अभी चहका ही था आँचल में मेरे इक नया जीवन
बहारों का जो मौसम जा रहा था, फिर पलट आया
लिया था गोद में पहले-पहल जब अपनी बिटिया को
लगा था, विश्व जैसे मेरी बाँहों में सिमट आया .
डॉ. मीना अग्रवाल
पहली बार अपनी गोद में उठाती है तो उसे लगता है कि मानो सारा संसार ही
उसकी बाँहों में सिमटकर आ गया हो.देखिए माँ की इसी भावना को----
अभी चहका ही था आँचल में मेरे इक नया जीवन
बहारों का जो मौसम जा रहा था, फिर पलट आया
लिया था गोद में पहले-पहल जब अपनी बिटिया को
लगा था, विश्व जैसे मेरी बाँहों में सिमट आया .
डॉ. मीना अग्रवाल
Friday, March 12, 2010
मुक्तक 36
ये खेत हमने दिए, क्यारियाँ हमीं ने दीं
ज़मीं की गोद को फुलवारियाँ हमीं ने दीं
उदास-उदास-सी चुप से भरा हुआ था घर
तुम्हारे सुनने को किलकारियाँ हमीं ने दीं !
विरह का तीर तुम्हारी कमान छोड़ गई
बिलखती-चीख़ती विरहन की जान छोड़ गई
ज़रा-सा ध्यान जो भटका तो मौलकर चूड़ी
कलाइयों में लहू का निशान छोड़ गई
डॉ. मीना अग्रवाल
ज़मीं की गोद को फुलवारियाँ हमीं ने दीं
उदास-उदास-सी चुप से भरा हुआ था घर
तुम्हारे सुनने को किलकारियाँ हमीं ने दीं !
विरह का तीर तुम्हारी कमान छोड़ गई
बिलखती-चीख़ती विरहन की जान छोड़ गई
ज़रा-सा ध्यान जो भटका तो मौलकर चूड़ी
कलाइयों में लहू का निशान छोड़ गई
डॉ. मीना अग्रवाल
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